Monday 16 May 2011

सांस्‍कृतिक विकास के बिना 'समुचित विकास' नहीं

बिहार में इन दिनों विकास की बात हो रही है। अच्‍छी बात है। लेकिन मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के सरकारी एजेंडे से 'सांस्‍कृतिक विकास' की बात सिरे से गायब है। राज्‍य सरकार के करीब साढ़े पांच साल बीत चुके हैं। मुख्‍यमंत्री और विभागीय मंत्री की ओर से कला, संस्‍कृति और कलाकारों के बुनियादी विकास के लिए अबतक कोई घोषणा नहीं हुई है। सरकारी योजनाओं का स्‍वाद चखने वाले सूबे के नामचीन कलाकार भी खामोश हैं। जबकि गांवों में कलाकारों का एक बड़ा तबका हाशिए पर जी रहा है। उसके समक्ष रोटी, रोजगार और सम्‍मान  का संकट है। कलाकारों  की इस जमात में 90 फीसदी दलित, महादलित, पिछड़ा, अतिपिछड़ा  जैसे वर्ग से ही आते हैं। महज दस फीसदी ही कलाकार ऐसे होंगे जो सवर्ण होंगे। इनमें कोई सुखी नहीं है। लोक गायन कर, भजन-कीर्तन गाकर, नाच दिखाकर, बैंड बजाकर, तमाशा दिखाकर, नाटक करके, चित्रकारी करके, बैनर-पोस्‍टर लिखकर समाज को सांस्‍कृतिक रूप से समृद्ध करने वाले इन कलाकारों के बच्‍चों, घर-बार, खान-पान, पहनावा आदि देखकर कोई भी उनकी स्‍थिति का अंदाजा लगा सकता है। हैरत करने वाली बात यह भी है कि सूबे की कोई भी पंचायत अपने स्‍थानीय कला-संस्‍कृति  और कलाकारों के विकास के लिए काम नहीं कर रही है। जबकि पंचायती राज अधिनियम में साफ-साफ कहा गया है कि पंचायतें बिजली, पानी, सड़क की तरह ही सांस्‍कृतिक विकास के लिए भी योजनाएं बनाकर सरकार के पास भेजेंगी। इससे जाहिर होता है कि बिहार में राज्‍य सरकार से लेकर पंचायतीराज तक कलाकारों के बारे में सोंचने की पहल नहीं हो रही है। ऐसे में दो अहम सवाल उठते हैं। पहला- क्‍या इन कलाकारों के विकास के बिना बिहार में सांस्‍कृतिक विकास संभव है ?  दूसरा- सांस्‍कृतिक विकास के बिना सूबे का समुचित विकास हो पाएगा ? यदि नहीं तो सरकार इस दिशा में क्‍यों नहीं सोच रही है।

मेरा मानना है कि बिहार में कलाकारों के लिए एक मुकम्‍मल नीति का निर्माण होना चाहिए। अबतक किसी भी पूर्ववर्ती सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की है। जबकि पश्‍िचम बंगाल की सरकार इस दिशा में आगे निकल चुकी है। बिहार सरकार को चाहिए कि एक टीम गठित कर ऐसी नीति बनाए जिससे कलाकारों को पेंशन, बीमा, रोजगार, संरक्षण, सामाजिक सम्‍मान, प्रशिक्षण जैसी बुनियादी सुविधाएं मिल सके। यही नहीं इस दायरे में तमाम ऐसे कलाकारों को शामिल किया जाए जिनकी रोजी रोटी कला के सहारे ही चलती है। उदाहरण के तौर पर एक बैंड बजाने वाला तीन-चार माह बैड बजाता है, बाकी दिनों में बेरोजगारी झेलता है, उसे सामाजिक सम्‍मान भी नहीं मिलता। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों के लोक कलाकारों के लिए कोई व्‍यवस्‍था नहीं है। नाच पार्टी और आर्केस्‍ट्रा में काम करने वाली महिलाओं और पुरुषों के लिए भी कोई मजदूरी तय नहीं है। उनका शोषण होता है। कई जगह तो उनकी हत्‍या भी हो जाती है। चंपारण में ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं। सामाजिक उपेक्षा की तो पूछिए मत। अगर सरकार कलाकारों के लिए नीति बना लेती है तो एक बड़ी उपलब्‍िध होगी।

इसी तरह  कला  के विकास के लिए वर्ष 2004 में बनाई गई 'सूबे की सांस्‍कृतिक नीति 2004' को जमीन पर उतारने की पहल होनी चाहिए। यह नीति राज्‍य सरकार ने खुद बना रखी है। लेकिन ठंडे बस्‍ते में है। इसमें कला के विकास के लिए कई प्रस्‍ताव शामिल हैं। लेकिन एक भी काम अबतक नहीं हुआ है। मीडिया ने भी कभी इसकी पड़ताल नहीं की। अगर प्राथमिकता के तौर पर सभी जिला मुख्‍यालयों में कला भवन आदि बना दिए जाएं तो सूबे में सांस्‍कृतिक गतिविधियां स्‍वत: बढ जाएंगी। इससे स्‍थानीय कला को प्रोत्‍साहन भी मिलेगा। आज बिहार के किसी भी जिले में कला प्रस्‍तुति के लिए एक अदद कला भवन नहीं है। जहां आडिटोरियम व नगर भवन आदि हैं उसका किराया पांच हजार से उपर है। चाहकर भी कोई आयोजन करने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाता है।

ठीक इसी तरह सूबे में लोक कलाओं व लोक कलाकारों के संरक्षण के लिए अलग से आयोग का गठन होना चाहिए। सबको पता है कि बिहार के हर जिले की अपनी सांस्‍कृतिक पहचान रही है। लेकिन, अब लोक कलाएं मरती जा रही हैं। कई कलाएं लुप्‍त हो चुकी हैं। इन कलाओं से जुड़े लोक कलाकार उजड़ते जा रहे हैं। मिथिलांचल में दसौत, सामा-चकेवा, झिझिया, जटा-जटिन, झुमरि, रमखेलिया, डोमकछ, लोरिक-सलहेस, गोपीचन्द, विदापत, हरिलता एवं विहुला प्रचलित लोक नाटक रहे हैं। इसके अलावा बिहार में अन्‍य प्रचलित लोक-नाटकों में चौपहरा, नारदी, नयना-योगिन, भाव, झड़नी, पमरिया भी प्रमुख रहा है। इस पर शोध नहीं हो रहा है। सो,  इन्‍हें सहेजने के लिए सूबे में एक अलग आयोग का गठन होना ही चाहिए। इससे बिहार की सांस्‍कृति एक बार फिर झूम उठेगी। यही नहीं सूबे में सकारात्‍मक माहौल भी बनेगा। हां, इसमें ध्‍यान रखने की बात यह होगी कि आयोग में लोक कलाकार ही प्रमुखता से शामिल रहें।


- एम. अखलाक
(लेखक लोक कलाकारों के जनसंगठन 'गांव जवार' के सदस्‍य हैं)
लेखक ब्‍लाग - http://www.reportaaz.blogspot.com/

Sunday 15 May 2011

आपने कर्पूरी परंपरा को लात मार दी

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और जदयू से बिहार विधान परिषद के सदस्य प्रेमकुमार मणि के पटना स्थित आवास पर 5 मई, 2011 की सुबह तीन बजे जानलेवा हमला किया गया। सत्ता द्वारा पोषित गुंडे प्रेमकुमार मणि के घर में खिड़की उखाड़ कर घुस गये। संयोग से मणि उस सुबह उस कमरे में नहीं सोये थे, जिसमें रोजाना सोते थे। गौरतलब है कि प्रेमकुमार मणि ने पिछले दिनों सवर्ण आयोग के मुद्दे पर नीतीश कुमार का विरोध किया था। मणि कई बार सार्वजनिक मंचों से अपनी हत्या की आशंका जता चुके हैं। मजदूर दिवस पर 1 मई को जेएनयू (माही), नयी दिल्ली में आयोजित जनसभा में भी उन्होंने कहा था कि उनके विचारों के कारण उनकी हत्या की जा सकती है लेकिन वे झुकेंगे नहीं। ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम और यूनाइटेड दलित स्टूडेंट्स फोरम दलित-पिछड़ों के प्रमुख चिंतक प्रेमकुमार मणि पर हमले की निंदा करता है। हम यहां मणि द्वारा 25 अप्रैल, 2009 को बिहार के मुख्यमंत्री को लिखा गया पत्र जारी कर रहे हैं। यह पत्र अब तक अप्रकाशित है : प्रमोद रंजन
मोहल्ला लाइव से साभार



सेवा में,
श्री नीतीश कुमार
माननीय मुख्यमंत्री, बिहार
पटना, 25 अप्रैल, 2009
आदरणीय भाई,
हुत दु:ख के साथ और तकरीबन तीन महीने की ऊहापोह के बाद यह पत्र लिख रहा हूं। जब आदमी सत्ता में होता है, तब उसका चाल-चरित्र सब बदल जाता है। आपके व्यवहार से मुझे कोई हैरानी नहीं हुई।
यह पत्र कोई व्यक्तिगत आकांक्षा से प्रेरित हो, यह बात नहीं। मैं बस आपको याद दिलाना चाहता हूं कि जब आप मुख्यमंत्री हुए थे और पहली दफा सचिवालय वाले आपके दफ्तर में बैठा था, और केवल हम दोनों थे, तब मैंने आत्मीयता से कहा था कि आप सबॉल्टर्न नेहरू बनने की कोशिश करें। मेरी दूसरी बात थी कि बिहार को प्रयोगशाला बनाना है और राष्‍ट्रीय राजनीति पर नजर रखनी है।

आज जब देखता हूं, तब उदास होकर रह जाता हूं। ऐसे वक्त में जब चारों ओर आपकी वाहवाही हो रही है और विकास-पुरुष का विरुद्ध अपने गले में डाल कर आप चहक रहे हैं – मेरे आलोचनात्मक स्वर आपको परेशान कर सकते हैं। लेकिन हकीकत यही है कि बिहार की राजनीति को आपने सवर्णों-सामंतों की गोद में डाल दिया है।

दरअसल बिहार में रणवीर सेना-भूमि सेना की सामाजिक शक्तियां राज कर रही हैं। इनके हवाले ही बिहार में इनफ्रास्‍ट्रक्चर का विकास है। एक प्रच्छन्न तानाशाही और गुंडाराज अशराफ अफसरों के नेतृत्व में चल रहा है और आप उसके मुखिया बने हैं।

कभी आप कर्पूरी ठाकुर की परंपरा की बात करते थे। आज आत्मसमीक्षा करके देखिए कि आप किस परंपरा में हैं। बिहार के गैर-कांग्रेसी राजनीति में दो परंपराएं हैं। एक परंपरा कर्पूरी जी की है, दूसरी भोला पासवान और रामसुंदरदास की। व्याख्या की जरूरत मैं नहीं समझता। आपने रामसुंदर दास की परंपरा अपनायी, कर्पूरी परंपरा को लात मार दी। ऊंची जातियों को आपका यही रूप प्रिय लगता है। वे आपके कसीदे गढ़ रहे हैं। मेरे जैसे लोग अभी इंतजार कर रहे हैं, आपको दुरुस्त होने का अवसर देना चाहते हैं। इसलिए अति पिछड़ी जातियों और दलितों के एक हिस्से में फिलहाल आपका कुछ चल जा रहा है। इन तबकों के लोग जब हकीकत जानेंगे, तब आप कहां होंगे, आप सोचें।

तीन साल की राजनीतिक उपलब्धि आपकी क्या रही? गांधी ने नेहरू जैसा काबिल उत्तराधिकारी चुना। कर्पूरी जी ने जो राजनीतिक जमीन तैयार की, उसमें लालू प्रसाद और नीतीश कुमार खिले। लेकिन आपने जो राजनीतिक जमीन तैयार की, उसमें कौन खिला? और आप कहते हैं कि बिहार विकास के रास्ते पर जा रहा है। हमने जर्मनी का इतिहास पढ़ा है। हिटलर ने भी विकास किया था। जैसे आपको बिहार की अस्मिता की चिंता है, वैसे ही हिटलर को भी जर्मनी के अस्मिता की चिंता थी। लेकिन हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी आखिर कहां गया?

इसलिए मेरे जैसे लोग आपकी सड़कों को देखकर अभिभूत नहीं होते। इसकी ठीकेदारी किनके पास है? इसमें कितने पिछड़े-अतिपिछड़े, दलित-महादलित लगे हैं। आप बताएंगे? लेकिन आप बिहार के विकास में लगी राशि का ब्योरा दीजिए। मैं दो मिनट में बता दूंगा कि इसकी कितनी राशि रणवीर सेना-भूमि सेना के पेट में गयी है। तो आप जान लीजिए, आप कहां पहुंच गये हैं? किस जमीन पर खड़े हैं?

आपके निर्माण में मेरी भी थोड़ी भूमिका रही है। जैसे कुम्हार मूर्ति गढ़ता है, ठीक उसी तरह हमारे जैसे लोगों ने आपको गढ़ा है। नया बिहार नीतीश कुमार का नारा था। हर किसी ने कुछ न कुछ अर्घ्‍य दिया था। हृदय पर हाथ रख कर कहिए अति पिछड़ों, महादलितों और अकलियतों के कार्यक्रमों को किसने डिजाइन किया था? मैंने इन सवालों की ओर आपका ध्यान खींचा और आपका शुक्रिया कि आपने इन्हें राजनीतिक आस्था का हिस्सा बनाया।

लेकिन दु:खद है ऊंची जातियों के दबाव में इन कार्यक्रमों का बधियाकरण कर दिया गया। सरकारी दुष्‍प्रचार से इन तबकों में थोड़ा उत्साह जरूर है लेकिन जब ये हकीकत जानते हैं, तो उदास हो जाते हैं। क्या आप केवल एक सवाल का जवाब दे सकते हैं कि किन परिस्थितियों में एकलव्य पुरस्कार को बदलकर दीनदयाल उपाध्याय पुरस्कार कर दिया गया? दीनदयाल जी का खेलों से भला क्या वास्ता था?

मनुष्‍य रोटी और इज्जत की लड़ाई साथ-साथ लड़ते हैं। रोटी और इज्जत में चुनना होता है, तो मनुष्‍य इज्जत का चुनाव करते हैं। रोटी के लिए पसीना बहाते हैं, इज्जत के लिए खून। और आपने दलितों-पिछड़ों की इज्जत, उनकी पहचान को ही खाक में मिला दिया।

आज आपकी सरकार को किसकी सरकार कहा जाता है? आप ही बताइए न! सामंतों के दबाव में आकर भूमि सुधार आयोग और समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग की सिफारिशों को आपने गतालखाने में डाल दिया जिसे, डी मुखोपाध्याय और मुचकुंद दुबे ने बहुत मिहनत से तैयार किया था और जिसके लागू होने से गरीबों-भूमिहीनों की किस्मत बदलने वाली थी। आपने यह नहीं होने दिया।

तो आदरणीय भाई नीतीश जी, बहुत प्यार से, बहुत आदर से आपसे गुजारिश है कि आप बदलिए। अपने चारों ओर ऊंची जाति के लंपट नेताओं और स्वार्थी मीडियाकर्मियों का आपने जो वलय बना रखा है उसमें आप जितने खूबसूरत दिखें, पिछड़े-दलितों के लिए खलनायक बन गये हैं।

कर्पूरी जी मुख्यमंत्री से हटाये गये, तो जननायक बने थे। समाजवादी नेता से उनका रूपांतरण पिछड़ावादी नेता में हुआ था। लेकिन आपका रूपांतरण कैसे नेता में हुआ है? आप नरेंद्र मोदी की तरह ‘लोकप्रिय` और रामसुंदर दास की तरह ‘भद्र` दिख रहे हैं। बहुत संभव है, आप नरेंद्र मोदी की तरह चुनाव जीत जाएं। लेकिन इतिहास में – पिछड़ों के सामाजिक इतिहास में – आप एक खलनायक की तरह ही चस्पां हो गये हैं। चुनाव जीतने से कोई नेता नहीं होता। जगजीवन राम और बाबा साहेब आंबेडकर के उदाहरण सामने हैं। आंबेडकर एक भी चुनाव जीते नहीं और जगजीवन राम एक भी चुनाव हारे नहीं। लेकिन इतिहास आंबेडकरों ने बनाया है, जगजीवन रामों ने नहीं।

और अब आपके सुशासन पर; सवर्ण समाज रामराज की बहुत चर्चा करता है…

दैहिक दैविक भौतिक तापा
राम राज कहुहि नहीं व्यापा


तुलसीदास ने ऐसा कहकर उसे रेखांकित किया है। लेकिन राम राज अपने मूल में कितना प्रतिगामी था, आप भी जानते होंगे। वहां शंबूकों की हत्या होती थी और सीता को घर से निकाला दिया जाता था। आपके राम राज का चारण कौन है, आप जानें-विचारें। मैं तो बस दलितों-पिछड़ों और सीताओं के नजरिये से इसे देखना चाहूंगा। मैं बार-बार कहता रहा हूं, हर राम राज (आधुनिक युग के सुशासन) में दलितों-पिछड़ों के लिए दो विकल्प होते हैं। एक यह कि चुप रहो, पूंछ डुलाओ, चरणों में बैठो – हनुमान की तरह। चौराहे पर मूर्ति और लड्डू का इंतजाम पुख्ता रहेगा।

दूसरा है शंबूक का विकल्प। यदि जो अपने सम्मान और समानाधिकार की बात की तो सिर कलम कर दिया जाएगा। मूर्तियों और लड्डुओं का विकल्प मैं ठुकराता हूं। मैं शंबूक बनना पसंद करूंगा। मुझे अपना सिर कलम करवाने का शौक है।

आपकी पुलिस या आपके गुंडे मुझे गोली मार दें। मैं इंकलाब बोलने के लिए अभिशप्त हूं।

आपका,
प्रेमकुमार मणि
2, सूर्य विहार, आशियाना नगर, पटना

Saturday 14 May 2011

पानी पर नीतीश का 'जजिया कर'

विपक्ष विहीन बिहार में मिस्‍टर सुशासन उर्फ मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार की
जनविरोधी नीतियां अब एक-एक कर जनता के सामने आने लगी हैं। पहले बिजली के
बाजारीकरण का खेल शुरू हुआ। खेल खत्‍म होने से पहले ही पानी के बाजारीकरण
का खेल भी शुरू हो गया है। पक्‍की खबर है कि सूबे में अब लोगों को अपनी
जमीन से पीने के लिए पानी निकालने पर नीतीश सरकार को 'जजिया कर' (टैक्‍स)
 देना होगा। यही नहीं जो जितना अधिक पानी यूज करेगा उसे उतना ही अधिक
टैक्‍स देना होगा। यानी पानी अब पराया गया है। जल पर जन का अधिकार नहीं
होगा। वैसे मिस्‍टर सुशासन का तर्क है कि इससे भू-जल की बर्बादी
नियंत्रित होगी। सूबे के सभी नगर निगमों  और पंचायती राज संस्‍थाओं  के
पास इस बाबत तुगलकी फरमान भेज दिए गए हैं। कई जगह अखबार वालों ने 'गुड
न्‍यूज' 'खास खबर' और जल संरक्षण  की दिशा में राज्‍य सरकार द्वारा उठाए
गए एक महत्‍वपूर्ण कदम जैसे भाव के साथ इस खबर को परोसा है। सूबे के किसी
भी अखबार ने इसे जनविरोधी बताने की जुर्रत नहीं की है।

पहले ही बन गई थी रणनीति
करीब दो साल पहले बिहार विधानसभा में नीतीश कुमार की सरकार ने इस विधेयक
को पास कराया था। तब किसी भी विपक्षी दल (राजद-लोजपा-वामदल) या विधायकों
ने विरोध नहीं जताया था। अखबारों में भी छोटी-छोटी खबरें प्रकाशित हुई
थीं। दरअसल, यह विधेयक कितना जनविरोधी है उस समय कोई ठीक से समझ ही नहीं
पाया। और भला समझता भी कैसे ?  उसके लिए दिमाग जो चाहिए। खैर, बिहार में
अक्‍सर ऐसा होता आया है कि विधेयक पारित होते समय विधानमंडल में कोई
प्रतिरोध नहीं होता। जब विधेयक लागू होने की बारी आती है तो जनता और
पार्टियां सड़क पर उतरने लगती हैं। शायद इस बार भी ऐसा ही होता, लेकिन
आसार नहीं दिख रहे हैं। क्‍योंकि इस बार तो विपक्ष सिरे से ही गायब है।
आखिर मुंह खोलेगा कौन ? मीडिया से तो उम्‍मीद ही बेमानी है। वह तो
मुख्‍यमंत्री के मुखपत्र की भूमिका निभा रहा है। मुझे अच्‍छी तरह याद है
जब विधेयक पास हुआ था तो मैंने मुजफ्फरपुर में भाकपा माले के कुछ साथियों
से विरोध जताने की अपील की थी, लेकिन उन्‍होंने भी गंभीरता से नहीं लिया।

किसने दिखाई नीतीश को राह
यों तो देश में पानी के बाजारीकरण का खेल वर्ष 1990-91 में नई
अर्थव्‍यवस्‍था को अपनाने के साथ ही शुरू हो गई थी। लेकिन बिहार में यह
नीतीश कुमार के शासनकाल से दिखाई दे रहा है। मुख्‍यमंत्री बनने के बाद
नीतीश कुमार कुमार वर्ल्‍ड बैंक के एजेंट की भूमिका निभाने लगे हैं। ठीक
उसी तरह जैसे आंध्र प्रदेश में कभी चंद्रबाबू नायडू निभाया करते थे।
उन्‍होंने भी अपने यहां भू-जल पर टैक्‍स लगा रखा है। ऐसे में भला नीतीश
कुमार पीछे कैसे रह सकते थे। इन्‍होंने भी आंध्र प्रदेश का माडल बिहार
में चुपके चुपके लांच कर दिया।

क्‍यों जरूरी है विरोध
नीतीश कुमार के विकास का माडल हर तरह से वर्ल्‍ड बैंक को मालदार बनाने
वाला है। पूंजीपतियों व  विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाला है। आम
आदमी  को इससे कोई फायदा नहीं होगा। करीब 20-25 वर्षों के बाद बिहार का
हर आदमी अप्रत्‍यक्ष रूप से वर्ल्‍ड बैंक को कर्जा चुकाते नजर आएगा। इतना
ही नहीं सूबे के गरीब और गरीब हो जायेंगे। बुनियादी संसाधनों पर से उनका
हक धीरे-धीरे छिन जाएगा। जल, जंगल और जमीन जैसी जन-जायदाद पर वर्ल्‍ड
बैंक गिद्ध की तरह नजर गड़ाए हुए है। अगर नीतीश जैसे एजेंटों का विरोध
नहीं हुआ तो देश गुलाम हो जाएगा।

- एम. अखलाक
लेखक ब्‍लाग - http://www.reportaaz.blogspot.com/

Thursday 12 May 2011

नीतीश, बिजली, बवाल और सच


बिजली संकट को लेकर इन दिनों बिहार में घमासान छिड़ा है। चहुंओर। बस नजर
घुमाइए दिख जाएगा। क्‍या यह घमासान प्रायोजित है ?  आपने इस दिशा में
सोचने की पहल की ? आइए, आपको कुछ बातें याद दिलाते हैं, शायद इससे
तस्‍वीर साफ हो जाए।

बात नंबर एक - बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार हर दिन केन्‍द्र की
मनमोहन सरकार को कोस रहे हैं। केन्‍द्र भी सफाई दे रहा है। यानी आरोप -
प्रत्‍यारोप का दौर जारी है। जनता भी इसे चाव से पसंद कर रही है। अखबार
इस बात के सुबूत हैं। हर दिन खबरें छपने का मतलब है, खबर बिक रही है। और
बिकने का मतलब है खरीदने वाली जनता पसंद कर रही है। तो भइया, असल बात यह है कि राज्‍य और केन्‍द्र के बीच चल रहे इस घमासान की जमीन विधानसभा
चुनाव के दौरान ही तैयार हो गई थी। चुनावी सभाओं में नीतीश कुमार
चिल्‍ला-चिल्‍ला कर कह रहे थे- अब बिजली के क्षेत्र में काम करना है।

चुनाव खत्‍म हुआ। जीत का सेहरा बंध गया। काम करने का समय आ गया है। सो,
बिजली मुद्दे को लेकर उनकी सियासत शुरू हो गई है। यह कब तक चलती रहेगी,
सही-सही जवाब मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार ही दे पाएंगे।

बात नंबर दो - बिजली की किल्‍लत लालू-राबड़ी के राजपाठ में सबसे अधिक थी।
क्‍योंकि तब सुशासन नहीं जंगल राज था, जैसा कि नीतीश कुमार कहते हैं।
'साधु' शेर बनकर जंगल में मंगल मनाया रहे थे। सूबे में नीतीश कुमार की
सरकार बनने के बाद सुशासन आ गया। यही नहीं पांच साल में ही हालत भी तेजी
से सुधर गए। लगभग सबकुछ दुरुस्‍त होता दिख रहा है। लेकिन बिजली को लेकर
सुशासन में अचनाक बवाल मच गया। जनता हर जिले में, हर गांव में, हर
टोला-मुहल्‍ला में टायर जलाकर, लाठी-डंडा लेकर विरोध प्रदर्शन करने लगी।
बिजली दो, बिजली दो... के नारे लगा रही है। अखबरों में फोटोयुक्‍त खबरें
छप रही हैं। अब सवाल उठता है कि जनता क्‍या सचमुच जागरूक हो गई है ?  यदि
जवाब हां है तो तब जनता इस कदर विरोध क्‍यों नहीं कर रही थी ?  अखबार
वाले इस कदर खबरें क्‍यों नहीं छाप रहे थे ? अचानक सबकुछ जागरूक कैसे हो
गया ? क्‍या जनता और मीडिया पर नीतीश का कोई मंत्र काम कर रहा है ?


हकीकत क्‍या है -  दरअसल, मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार का विकास माडल
वर्ल्‍ड बैंक पोशक है। राज्‍य सरकार सबकुछ निजी हाथों में सौंपने के लिए
आतुर है। इसी क्रम में सूबे में बिजली के बाजारीकरण की तैयारी पूरी हो
चुकी है। प्रथम चरण में पटना, मुजफ्फरपुर और भागलपुर में बिजली को निजी
हाथों में देने की योजना है। संभव है कुछ ही महीनों में यह खबर सामने आ
भी जाए। नीतीश कुमार को अच्‍छी तरह पता है कि बिजली के बाजारीकरण का
विरोध होगा। उनके लोक कल्‍याणकारी राज्‍य की छवि प्रभावित हो सकती है।
इससे बचने के लिए उन्‍होंने खास रणनीति बनाई है। जिसके तहत जदयू
कार्यकर्ता जगह-जगह जनता को विरोध प्रदर्शन के लिए उकसा रहे हैं। अगर आप
गौर फरमाएं तो इन विरोध प्रदर्शनों में कहीं भी मुख्‍यमंत्री का पुतला
दहन नहीं हो रहा है। टारगेट कोई और होता है। इतना ही नहीं नीतीश कुमार के
इशारे पर नाचने वाले सूबे के  अखबारों ने भी ऐसी खबरों को प्रमुखता से
स्‍थान देने की हिदायत अपने रिपोर्टरों को दे रखी है। दरअसल,
मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार आने वाले दिनों में यह कहकर बिजली को निजी
हाथों में सौंपना चाह रहे हैं कि जनता को इससे राहत मिलेगी। जनता लगातार
बिजली की मांग कर रही थी, सो उन्‍होंने ऐसा कदम मजबूरी में उठाया।
केन्‍द्र ने उनकी कोई मदद नहीं की। आदि आदि। यानी कुल मिलाकर बिजली के
बाजारीकरण का खेल चल रहा है।

एम अखलाक

Saturday 7 May 2011

अंधेरी राह पर कैसे बढ़े बिहार

भूटान यात्रा से लौटे बिहार के मुख्‌यमंत्री नीतीश कुमार ने केंद्र सरकार से इजाजत मांगी है कि वह उन्हें भूटान की विद्युत परियोजनाओं में बिहार सरकार का पैसा लगाने और वहां से अपने स्तर पर राज्‌य के लिये बिजली खरीदने की इजाजत दें. पता नहीं कोल लिंकेज की मांग की तरह यह मांग भी मौजूदा बिजली संकट को केंद्र के पालने में डालने उनकी पुरानी राजनीतिक चाल का हिस्सा है या वाकई वे बिहार की मौजूदा बिजली संकट को लेकर गंभीर हैं? बहुत संभव है कि इस बार वे इस मसले पर गंभीर हों,  क्योंकि  हाल के दिनों में बिजली संकट को लेकर बिहार में जो हालात बने हैं वे खतरे की घंटी साबित हो सकते हैं. नीतीश दूरदर्शी हैं और इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने भांप लिया हो कि अगर बिहार की जनता कोई बहाना नहीं सुनना चाह रही. या तो वे इस समस्या का समाधान करें या असफल साबित होकर लोगों की नजर से उतर जायें.

जेनरेटर के भरोसे व्यापार-उद्योग
दरअसल राज्‌य में मीडिया में भले ही ठीक से नजर न आता हो मगर विकास भूख से बेहाल बिहार के बाशिंदे स्थायी बिजली संकट की समस्या को अपने पांव की सबसे बड़ी बेड़ी मान रहे हैं. पटना को छोड़कर राज्‌य का एक भी शहर ऐसा नहीं जहां 8-10 घंटे से अधिक बिजली रहती हो. राज्‌य के अधिकांश व्‌यापार जेनरेटर के भरोसे चलते हैं और रोजना 10 से 15 घंटे जेनरेटर चलाने के कारण लागत काफी बढ़ जाती है. यही वजह है कि अधिकांश शहरों के विकास की रफ्‌तार अवरुद्ध हो गयी है. मसलन भागलपुर को ही लें, रेशम नगरी के नाम से मशहूर यह शहर बहुत आसानी से सूरत और भिवंडी जैसे वस्त्र निर्माण केंद्र के रूप में विकसित हो सकता था. मगर यहां का पूरा का पूरा सिल्‌क उद्योग जेनरेटरों के भरोसे चलता है, लिहाजा यहां तैयार हुआ तसर कीमत की स्पर्धा में बार-बार चीन से पिछड़ जाता है. मुजफ्‌फरपुर फ्रुट जूस उद्योग का सेंटर बन सकता है, खगड़िया मक्के पर आधारित खाद्य प्रसंस्करण उत्पादों का हब बन सकता है. मगर भागलपुर और मुजफ्‌फरपुर को रोजाना 15 से 20 मेगावाट ही बिजली मिलती है और खगड़िया जैसे शहर तो 10 मेगावाट बिजली भी पा लें तो खुशी से झूम उठते हैं.
 

पूरे राज्य के लिए महज 450 मेगावाट
रोजाना 3 हजार मेगावाट से अधिक बिजली खर्च करने वाली देश की राजधानी को यह जानकर हैरत हो सकता है कि बिहार की सामान्य मांग महज 12 सौ मेगावाट प्रतिदिन है. इसमें भी औसतन 850 मेगावाट बिजली ही उसे हासिल होती है. दरअसल बिहार के पास बिजली उत्पादन का कोई अपना जरिया नहीं है. राज्‌य में जो पावर प्‌लांट हैं वे केंद्र सरकार द्वारा संचालित हैं, मसलन एनटीपीसी कहलगांव, कांटी और नवनिर्मित बाढ़. लिहाजा यह राज्‌य पूरी तरह केंद्र सरकार की ओर से आवंटित बिजली पर आश्रित है. जो मिलता है उसी में काम चलाना पड़ता है. बिहार को आवंटित 850 मेगावाट का एक बड़ा हिस्सा उसे रेलवे और नेपाल को देना पड़ता है. इस तरह उसके पास आम तौर पर 450 से 475 मेगावाट बिजली ही अपने इस्तेमाल के लिये बचती है.

कार्टून  के लिए हिंदुस्तान और पवन का आभार  
80 फ़ीसदी बिजली पटना को  
हालांकि केंद्र से भेदभावपूर्ण रवैया का शिकार बिहार इस बिजली का बंटवारा करते वक्त खुद को भेदभाव से मुक्त नहीं रख पाता. इस 450-475 मेगावाट की पूंजी में से 350 मेगावाट राजधानी पटना के लिये रख लिया जाता है और 100-125 मेगावाट के पत्रं-पुष्‌पं से राज्‌य के दूसरे जिलों का काम चलता है. जिले भी कमोबेस इसी नीति का पालन करते हैं और अधिकांश बिजली शहरों के लिये रख लेते हैं, कुछ बच गया तो गांव भेज देते हैं. लिहाजा में राज्‌य के गांव में अगर बिजली आ गयी तो लोग खुशी मनाते हैं.
 
 इस कड़वी सच्‌चाई का खुलासा ग्रीनपीस नामक संस्था के उस रपट से भी होता है जिसमें उसने राज्‌य में संचालित ग्रामीण विद्युतीकरण योजना को असफल करार दे दिया है. इस अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक राज्‌य के सारण और मधुबनी जिले में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत हर गांव में बिजली पहुंच तो गयी है मगर 78 फीसदी आबादी अंधेरे में ही रहती है और 87 फीसदी लोग कम वोल्‌टेज की शिकायत करते हैं. इस संस्था ने राज्‌य सरकार से सिफारिश की है कि वे गांव आधारित छोटी-छोटी परियोजनाओं को बढ़ावा दें, तभी गांवों से बिजली संकट दूर होगा.

अररिया दिखा रहा राह
अररिया जिले के दो गांव में ऐसे प्रयोग हुए भी हैं और वे कमोबेस सफल हैं. इन गांवों में 5-6 लाख की लागत से विद्युत उत्पादन संयंत्र लगे हैं जो चावल की भूसी और ढ़ैचा से बिजली उत्पादित करते हैं. इस संयंत्र से ग्रामीणों को बहुत कम लागत पर बिजली मिल रही है. मगर राज्‌य सरकार इन संयंत्रों को माडल बनाने के बदले भूटान की परियोजनाओं में पैसा लगाने, निजी कंपनियों को राज्‌य में थर्मल पावर प्‌लांट शुरू करने की इजाजत देने के उपायों मंे आस्था व्‌यक्त कर रही है.
बहरहाल इसी बीच राजद नेता अब्‌दुल बारी सिद्दीकी ने बिहार राज्‌य विद्युत बोर्ड पर बड़ा गंभीर आरोप लगाया है. उन्होंने कहा है कि जहां राज्‌य भीषण बिजली संकट से जूझ रहा है, बोर्ड औद्योगिक इकाइयों द्वारा की जा रही बिजली चोरी की ओर से आंखें मूंदे हुए है. राज्‌य की 52 औद्योगिक इकाइयां बिजली चोरी के जरिये राज्‌य को अब तक 4 हजार से अधिक का चूना लगा चुकी है.
मसला जो भी हो मगर केंद्र और राज्‌य सरकार के आरोप प्रत्यारोप के बीच बिहार की जनता का धैर्य अब टूटने लगा है. अगर वक्त रहते कुछ समाधान नहीं निकला तो सुशासन की उम्मीद से नयी संभावना तलाशने बिहार पहुंची बड़ी आबादी फिर से बिहार छोड़ने को विवश हो जायेगी.