Sunday 15 May 2011

आपने कर्पूरी परंपरा को लात मार दी

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और जदयू से बिहार विधान परिषद के सदस्य प्रेमकुमार मणि के पटना स्थित आवास पर 5 मई, 2011 की सुबह तीन बजे जानलेवा हमला किया गया। सत्ता द्वारा पोषित गुंडे प्रेमकुमार मणि के घर में खिड़की उखाड़ कर घुस गये। संयोग से मणि उस सुबह उस कमरे में नहीं सोये थे, जिसमें रोजाना सोते थे। गौरतलब है कि प्रेमकुमार मणि ने पिछले दिनों सवर्ण आयोग के मुद्दे पर नीतीश कुमार का विरोध किया था। मणि कई बार सार्वजनिक मंचों से अपनी हत्या की आशंका जता चुके हैं। मजदूर दिवस पर 1 मई को जेएनयू (माही), नयी दिल्ली में आयोजित जनसभा में भी उन्होंने कहा था कि उनके विचारों के कारण उनकी हत्या की जा सकती है लेकिन वे झुकेंगे नहीं। ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम और यूनाइटेड दलित स्टूडेंट्स फोरम दलित-पिछड़ों के प्रमुख चिंतक प्रेमकुमार मणि पर हमले की निंदा करता है। हम यहां मणि द्वारा 25 अप्रैल, 2009 को बिहार के मुख्यमंत्री को लिखा गया पत्र जारी कर रहे हैं। यह पत्र अब तक अप्रकाशित है : प्रमोद रंजन
मोहल्ला लाइव से साभार



सेवा में,
श्री नीतीश कुमार
माननीय मुख्यमंत्री, बिहार
पटना, 25 अप्रैल, 2009
आदरणीय भाई,
हुत दु:ख के साथ और तकरीबन तीन महीने की ऊहापोह के बाद यह पत्र लिख रहा हूं। जब आदमी सत्ता में होता है, तब उसका चाल-चरित्र सब बदल जाता है। आपके व्यवहार से मुझे कोई हैरानी नहीं हुई।
यह पत्र कोई व्यक्तिगत आकांक्षा से प्रेरित हो, यह बात नहीं। मैं बस आपको याद दिलाना चाहता हूं कि जब आप मुख्यमंत्री हुए थे और पहली दफा सचिवालय वाले आपके दफ्तर में बैठा था, और केवल हम दोनों थे, तब मैंने आत्मीयता से कहा था कि आप सबॉल्टर्न नेहरू बनने की कोशिश करें। मेरी दूसरी बात थी कि बिहार को प्रयोगशाला बनाना है और राष्‍ट्रीय राजनीति पर नजर रखनी है।

आज जब देखता हूं, तब उदास होकर रह जाता हूं। ऐसे वक्त में जब चारों ओर आपकी वाहवाही हो रही है और विकास-पुरुष का विरुद्ध अपने गले में डाल कर आप चहक रहे हैं – मेरे आलोचनात्मक स्वर आपको परेशान कर सकते हैं। लेकिन हकीकत यही है कि बिहार की राजनीति को आपने सवर्णों-सामंतों की गोद में डाल दिया है।

दरअसल बिहार में रणवीर सेना-भूमि सेना की सामाजिक शक्तियां राज कर रही हैं। इनके हवाले ही बिहार में इनफ्रास्‍ट्रक्चर का विकास है। एक प्रच्छन्न तानाशाही और गुंडाराज अशराफ अफसरों के नेतृत्व में चल रहा है और आप उसके मुखिया बने हैं।

कभी आप कर्पूरी ठाकुर की परंपरा की बात करते थे। आज आत्मसमीक्षा करके देखिए कि आप किस परंपरा में हैं। बिहार के गैर-कांग्रेसी राजनीति में दो परंपराएं हैं। एक परंपरा कर्पूरी जी की है, दूसरी भोला पासवान और रामसुंदरदास की। व्याख्या की जरूरत मैं नहीं समझता। आपने रामसुंदर दास की परंपरा अपनायी, कर्पूरी परंपरा को लात मार दी। ऊंची जातियों को आपका यही रूप प्रिय लगता है। वे आपके कसीदे गढ़ रहे हैं। मेरे जैसे लोग अभी इंतजार कर रहे हैं, आपको दुरुस्त होने का अवसर देना चाहते हैं। इसलिए अति पिछड़ी जातियों और दलितों के एक हिस्से में फिलहाल आपका कुछ चल जा रहा है। इन तबकों के लोग जब हकीकत जानेंगे, तब आप कहां होंगे, आप सोचें।

तीन साल की राजनीतिक उपलब्धि आपकी क्या रही? गांधी ने नेहरू जैसा काबिल उत्तराधिकारी चुना। कर्पूरी जी ने जो राजनीतिक जमीन तैयार की, उसमें लालू प्रसाद और नीतीश कुमार खिले। लेकिन आपने जो राजनीतिक जमीन तैयार की, उसमें कौन खिला? और आप कहते हैं कि बिहार विकास के रास्ते पर जा रहा है। हमने जर्मनी का इतिहास पढ़ा है। हिटलर ने भी विकास किया था। जैसे आपको बिहार की अस्मिता की चिंता है, वैसे ही हिटलर को भी जर्मनी के अस्मिता की चिंता थी। लेकिन हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी आखिर कहां गया?

इसलिए मेरे जैसे लोग आपकी सड़कों को देखकर अभिभूत नहीं होते। इसकी ठीकेदारी किनके पास है? इसमें कितने पिछड़े-अतिपिछड़े, दलित-महादलित लगे हैं। आप बताएंगे? लेकिन आप बिहार के विकास में लगी राशि का ब्योरा दीजिए। मैं दो मिनट में बता दूंगा कि इसकी कितनी राशि रणवीर सेना-भूमि सेना के पेट में गयी है। तो आप जान लीजिए, आप कहां पहुंच गये हैं? किस जमीन पर खड़े हैं?

आपके निर्माण में मेरी भी थोड़ी भूमिका रही है। जैसे कुम्हार मूर्ति गढ़ता है, ठीक उसी तरह हमारे जैसे लोगों ने आपको गढ़ा है। नया बिहार नीतीश कुमार का नारा था। हर किसी ने कुछ न कुछ अर्घ्‍य दिया था। हृदय पर हाथ रख कर कहिए अति पिछड़ों, महादलितों और अकलियतों के कार्यक्रमों को किसने डिजाइन किया था? मैंने इन सवालों की ओर आपका ध्यान खींचा और आपका शुक्रिया कि आपने इन्हें राजनीतिक आस्था का हिस्सा बनाया।

लेकिन दु:खद है ऊंची जातियों के दबाव में इन कार्यक्रमों का बधियाकरण कर दिया गया। सरकारी दुष्‍प्रचार से इन तबकों में थोड़ा उत्साह जरूर है लेकिन जब ये हकीकत जानते हैं, तो उदास हो जाते हैं। क्या आप केवल एक सवाल का जवाब दे सकते हैं कि किन परिस्थितियों में एकलव्य पुरस्कार को बदलकर दीनदयाल उपाध्याय पुरस्कार कर दिया गया? दीनदयाल जी का खेलों से भला क्या वास्ता था?

मनुष्‍य रोटी और इज्जत की लड़ाई साथ-साथ लड़ते हैं। रोटी और इज्जत में चुनना होता है, तो मनुष्‍य इज्जत का चुनाव करते हैं। रोटी के लिए पसीना बहाते हैं, इज्जत के लिए खून। और आपने दलितों-पिछड़ों की इज्जत, उनकी पहचान को ही खाक में मिला दिया।

आज आपकी सरकार को किसकी सरकार कहा जाता है? आप ही बताइए न! सामंतों के दबाव में आकर भूमि सुधार आयोग और समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग की सिफारिशों को आपने गतालखाने में डाल दिया जिसे, डी मुखोपाध्याय और मुचकुंद दुबे ने बहुत मिहनत से तैयार किया था और जिसके लागू होने से गरीबों-भूमिहीनों की किस्मत बदलने वाली थी। आपने यह नहीं होने दिया।

तो आदरणीय भाई नीतीश जी, बहुत प्यार से, बहुत आदर से आपसे गुजारिश है कि आप बदलिए। अपने चारों ओर ऊंची जाति के लंपट नेताओं और स्वार्थी मीडियाकर्मियों का आपने जो वलय बना रखा है उसमें आप जितने खूबसूरत दिखें, पिछड़े-दलितों के लिए खलनायक बन गये हैं।

कर्पूरी जी मुख्यमंत्री से हटाये गये, तो जननायक बने थे। समाजवादी नेता से उनका रूपांतरण पिछड़ावादी नेता में हुआ था। लेकिन आपका रूपांतरण कैसे नेता में हुआ है? आप नरेंद्र मोदी की तरह ‘लोकप्रिय` और रामसुंदर दास की तरह ‘भद्र` दिख रहे हैं। बहुत संभव है, आप नरेंद्र मोदी की तरह चुनाव जीत जाएं। लेकिन इतिहास में – पिछड़ों के सामाजिक इतिहास में – आप एक खलनायक की तरह ही चस्पां हो गये हैं। चुनाव जीतने से कोई नेता नहीं होता। जगजीवन राम और बाबा साहेब आंबेडकर के उदाहरण सामने हैं। आंबेडकर एक भी चुनाव जीते नहीं और जगजीवन राम एक भी चुनाव हारे नहीं। लेकिन इतिहास आंबेडकरों ने बनाया है, जगजीवन रामों ने नहीं।

और अब आपके सुशासन पर; सवर्ण समाज रामराज की बहुत चर्चा करता है…

दैहिक दैविक भौतिक तापा
राम राज कहुहि नहीं व्यापा


तुलसीदास ने ऐसा कहकर उसे रेखांकित किया है। लेकिन राम राज अपने मूल में कितना प्रतिगामी था, आप भी जानते होंगे। वहां शंबूकों की हत्या होती थी और सीता को घर से निकाला दिया जाता था। आपके राम राज का चारण कौन है, आप जानें-विचारें। मैं तो बस दलितों-पिछड़ों और सीताओं के नजरिये से इसे देखना चाहूंगा। मैं बार-बार कहता रहा हूं, हर राम राज (आधुनिक युग के सुशासन) में दलितों-पिछड़ों के लिए दो विकल्प होते हैं। एक यह कि चुप रहो, पूंछ डुलाओ, चरणों में बैठो – हनुमान की तरह। चौराहे पर मूर्ति और लड्डू का इंतजाम पुख्ता रहेगा।

दूसरा है शंबूक का विकल्प। यदि जो अपने सम्मान और समानाधिकार की बात की तो सिर कलम कर दिया जाएगा। मूर्तियों और लड्डुओं का विकल्प मैं ठुकराता हूं। मैं शंबूक बनना पसंद करूंगा। मुझे अपना सिर कलम करवाने का शौक है।

आपकी पुलिस या आपके गुंडे मुझे गोली मार दें। मैं इंकलाब बोलने के लिए अभिशप्त हूं।

आपका,
प्रेमकुमार मणि
2, सूर्य विहार, आशियाना नगर, पटना

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