भूटान यात्रा से लौटे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने केंद्र सरकार से इजाजत मांगी है कि वह उन्हें भूटान की विद्युत परियोजनाओं में बिहार सरकार का पैसा लगाने और वहां से अपने स्तर पर राज्य के लिये बिजली खरीदने की इजाजत दें. पता नहीं कोल लिंकेज की मांग की तरह यह मांग भी मौजूदा बिजली संकट को केंद्र के पालने में डालने उनकी पुरानी राजनीतिक चाल का हिस्सा है या वाकई वे बिहार की मौजूदा बिजली संकट को लेकर गंभीर हैं? बहुत संभव है कि इस बार वे इस मसले पर गंभीर हों, क्योंकि हाल के दिनों में बिजली संकट को लेकर बिहार में जो हालात बने हैं वे खतरे की घंटी साबित हो सकते हैं. नीतीश दूरदर्शी हैं और इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने भांप लिया हो कि अगर बिहार की जनता कोई बहाना नहीं सुनना चाह रही. या तो वे इस समस्या का समाधान करें या असफल साबित होकर लोगों की नजर से उतर जायें.
जेनरेटर के भरोसे व्यापार-उद्योग
दरअसल राज्य में मीडिया में भले ही ठीक से नजर न आता हो मगर विकास भूख से बेहाल बिहार के बाशिंदे स्थायी बिजली संकट की समस्या को अपने पांव की सबसे बड़ी बेड़ी मान रहे हैं. पटना को छोड़कर राज्य का एक भी शहर ऐसा नहीं जहां 8-10 घंटे से अधिक बिजली रहती हो. राज्य के अधिकांश व्यापार जेनरेटर के भरोसे चलते हैं और रोजना 10 से 15 घंटे जेनरेटर चलाने के कारण लागत काफी बढ़ जाती है. यही वजह है कि अधिकांश शहरों के विकास की रफ्तार अवरुद्ध हो गयी है. मसलन भागलपुर को ही लें, रेशम नगरी के नाम से मशहूर यह शहर बहुत आसानी से सूरत और भिवंडी जैसे वस्त्र निर्माण केंद्र के रूप में विकसित हो सकता था. मगर यहां का पूरा का पूरा सिल्क उद्योग जेनरेटरों के भरोसे चलता है, लिहाजा यहां तैयार हुआ तसर कीमत की स्पर्धा में बार-बार चीन से पिछड़ जाता है. मुजफ्फरपुर फ्रुट जूस उद्योग का सेंटर बन सकता है, खगड़िया मक्के पर आधारित खाद्य प्रसंस्करण उत्पादों का हब बन सकता है. मगर भागलपुर और मुजफ्फरपुर को रोजाना 15 से 20 मेगावाट ही बिजली मिलती है और खगड़िया जैसे शहर तो 10 मेगावाट बिजली भी पा लें तो खुशी से झूम उठते हैं.
पूरे राज्य के लिए महज 450 मेगावाट
रोजाना 3 हजार मेगावाट से अधिक बिजली खर्च करने वाली देश की राजधानी को यह जानकर हैरत हो सकता है कि बिहार की सामान्य मांग महज 12 सौ मेगावाट प्रतिदिन है. इसमें भी औसतन 850 मेगावाट बिजली ही उसे हासिल होती है. दरअसल बिहार के पास बिजली उत्पादन का कोई अपना जरिया नहीं है. राज्य में जो पावर प्लांट हैं वे केंद्र सरकार द्वारा संचालित हैं, मसलन एनटीपीसी कहलगांव, कांटी और नवनिर्मित बाढ़. लिहाजा यह राज्य पूरी तरह केंद्र सरकार की ओर से आवंटित बिजली पर आश्रित है. जो मिलता है उसी में काम चलाना पड़ता है. बिहार को आवंटित 850 मेगावाट का एक बड़ा हिस्सा उसे रेलवे और नेपाल को देना पड़ता है. इस तरह उसके पास आम तौर पर 450 से 475 मेगावाट बिजली ही अपने इस्तेमाल के लिये बचती है.
हालांकि केंद्र से भेदभावपूर्ण रवैया का शिकार बिहार इस बिजली का बंटवारा करते वक्त खुद को भेदभाव से मुक्त नहीं रख पाता. इस 450-475 मेगावाट की पूंजी में से 350 मेगावाट राजधानी पटना के लिये रख लिया जाता है और 100-125 मेगावाट के पत्रं-पुष्पं से राज्य के दूसरे जिलों का काम चलता है. जिले भी कमोबेस इसी नीति का पालन करते हैं और अधिकांश बिजली शहरों के लिये रख लेते हैं, कुछ बच गया तो गांव भेज देते हैं. लिहाजा में राज्य के गांव में अगर बिजली आ गयी तो लोग खुशी मनाते हैं.
इस कड़वी सच्चाई का खुलासा ग्रीनपीस नामक संस्था के उस रपट से भी होता है जिसमें उसने राज्य में संचालित ग्रामीण विद्युतीकरण योजना को असफल करार दे दिया है. इस अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के सारण और मधुबनी जिले में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत हर गांव में बिजली पहुंच तो गयी है मगर 78 फीसदी आबादी अंधेरे में ही रहती है और 87 फीसदी लोग कम वोल्टेज की शिकायत करते हैं. इस संस्था ने राज्य सरकार से सिफारिश की है कि वे गांव आधारित छोटी-छोटी परियोजनाओं को बढ़ावा दें, तभी गांवों से बिजली संकट दूर होगा.
इस कड़वी सच्चाई का खुलासा ग्रीनपीस नामक संस्था के उस रपट से भी होता है जिसमें उसने राज्य में संचालित ग्रामीण विद्युतीकरण योजना को असफल करार दे दिया है. इस अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के सारण और मधुबनी जिले में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत हर गांव में बिजली पहुंच तो गयी है मगर 78 फीसदी आबादी अंधेरे में ही रहती है और 87 फीसदी लोग कम वोल्टेज की शिकायत करते हैं. इस संस्था ने राज्य सरकार से सिफारिश की है कि वे गांव आधारित छोटी-छोटी परियोजनाओं को बढ़ावा दें, तभी गांवों से बिजली संकट दूर होगा.
अररिया दिखा रहा राह
अररिया जिले के दो गांव में ऐसे प्रयोग हुए भी हैं और वे कमोबेस सफल हैं. इन गांवों में 5-6 लाख की लागत से विद्युत उत्पादन संयंत्र लगे हैं जो चावल की भूसी और ढ़ैचा से बिजली उत्पादित करते हैं. इस संयंत्र से ग्रामीणों को बहुत कम लागत पर बिजली मिल रही है. मगर राज्य सरकार इन संयंत्रों को माडल बनाने के बदले भूटान की परियोजनाओं में पैसा लगाने, निजी कंपनियों को राज्य में थर्मल पावर प्लांट शुरू करने की इजाजत देने के उपायों मंे आस्था व्यक्त कर रही है.
बहरहाल इसी बीच राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने बिहार राज्य विद्युत बोर्ड पर बड़ा गंभीर आरोप लगाया है. उन्होंने कहा है कि जहां राज्य भीषण बिजली संकट से जूझ रहा है, बोर्ड औद्योगिक इकाइयों द्वारा की जा रही बिजली चोरी की ओर से आंखें मूंदे हुए है. राज्य की 52 औद्योगिक इकाइयां बिजली चोरी के जरिये राज्य को अब तक 4 हजार से अधिक का चूना लगा चुकी है.
मसला जो भी हो मगर केंद्र और राज्य सरकार के आरोप प्रत्यारोप के बीच बिहार की जनता का धैर्य अब टूटने लगा है. अगर वक्त रहते कुछ समाधान नहीं निकला तो सुशासन की उम्मीद से नयी संभावना तलाशने बिहार पहुंची बड़ी आबादी फिर से बिहार छोड़ने को विवश हो जायेगी.
आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
ReplyDeleteआज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।
pravin
ranchi me patrakar kaitrina ke jalwe dekhne ke liye pareshan hain
ReplyDeleteravi singh
ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है. बहुत बढ़ाई.
ReplyDeletehttp://appansamachar.blogspot.com
आपका
संतोष सारंग
संस्थापक, अप्पन समाचार
मुजफ्फरपुर